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कविता
वे जो
ज्ञानेंद्रपति
वे जो 'सर' कहाते हैं
धड़ भर हैं
उनकी शोध-छात्राओं से पूछ देखो
शीर्ष पर जाएँ
हिंदी समय में ज्ञानेंद्रपति की रचनाएँ
कविताएँ
अकाट्य सिर
आए हैं दाता
आदमी को प्यास लगती है
आवो, चलें हम
इंतजार
एक गर्भवती औरत के प्रति दो कविताएँ
एक टूटता हुआ घर
एक मृत कौवा
क्यों न
किसी की : किन्हीं की
खेसाड़ी दाल की तरह निंदित
गमछे की गंध
जितनी : उतनी
टेडी बियर में बचे हुए भालू
ट्राम में एक याद
दुखों से जो दग्ध
नदी और नगर
प्यासा कुआँ
पाँच चिड़ियों ने
बनानी बनर्जी
बीज-व्यथा
मकर संक्रांति के दिवस का शीर्षक
माचिस की बाबत
मानव-बम
मिल्कियत
रोशनी ढोता जिस्म
वे जो
वे दो दाँत-तनिक बड़े
विज्ञान-शिक्षक से छोटी लड़की का एक सवाल
सूर्यास्त की आभा भी जब अस्त हो रही होती है
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